Monday, 22 July 2019

हिंदी लघु कवितायें

प्राकर्तिक विवशता

चंचल चपल मन मनुस्य का
धीर नहीं धर पाता है,
हो विवश सौंदर्य के सम्मुख
वो भूल नयी कर जाता है।


ख़ामोशी

मैं खुल कर कैसे आऊं, मुझे उसी मोहल्ले जाना है।
तुझे सच कैसे बतलाऊँ, मुझे उसी मोहल्ले जाना है।
सही गलत के चक्कर में, जूता मैं क्यों खाऊँ,
और क्यों मैं हिम्मत दिखलाऊँ, मुझे उसी मोहल्ले जाना है।


तेरा इतिहास और मेरा इतिहास

वर्तमान को भुला कर, भूत की व्याख्या गाते हैं।
सत्य और मिथ्या के बीच में अपना अस्तित्व बनाते हैं।
इतिहास के दानों को चुनकर अपना इतिहास बनाते हैं।
सत्य के कड़वाहट को झूठ की चाशनी से मिटाते हैं।
यदि हम हैं विकसित मानव, सत्य को स्वीकार करें।
अपने भूत के पापों का हम स्वयं तिरस्कार करें।
मन में लें ये व्रत के वो इतिहास नही दोहराएंगे।
जो मानवता के अनुरूप ना हो वो गीत नहीं हम गाएंगे।


हम भारतीय

एकता में अनेकता हम पूरे विस्व को बतलाते हैं ,
भाईचारे का रिश्ता पूरी घृणा से निभाते हैं ।
काले को काला कह कर हम उसको नीचा दिखलाते हैं,
जाति लिंग के भेद पर पूरा उपहास उड़ाते हैं ।
भारतीयता के सूत्र को हमने जी भर कर तोड़ा है,
बिहारी को पहचान नही अपशब्द बना के छोड़ा है।
कामसूत्र है जिस जग का उसमें आलिंगन प्रतिबंधित है,
उस मंदिर जाने से डरते हैं जिसके स्वयं हम पंडित हैं ।