घर आते समय जब रास्ते में, लखन की साइकल का पेडल ही टूट गया तब उसे साइकल को अपनी जिंदगी की तरह धक्का देकर आगे बढ़ाना पड़ा। सोच रहा था कि अब ये ही एक घोड़ी थी अस्तबल में, सो भी धोका दे गयी। पैसा तो जोड़ने का समय है और ये फ़िजूल खर्ची भी आ गयी। मगर लाली की शादी भोलेनाथ की करपा से तय हो गयी तो साइकल की तो बहुत ज़रूरत पड़ेगी। और आँगन में कैसी लग़ेगी ये टूटी हुई साइकल अगर कोई लाली को देखने वाला आया तो। मगर साइकल के पेडल का ये बीसवां ऑपरेशन है, इस बार डाक्टर नयी टांग लगा कर ही मानेगा। कम से कम दो-सौ रुपये लेगा। ये सब सोच ही रहा था कि रास्ते मे पीपल का पेड़ आ गया। किसी ने वहाँ एक चिकना पत्थर रख दिया था करीब आठ महीना पहले। किसी ने उसपे दो पत्ते गिरा दिए और आज उसके करीब दो दुकाने खुल गयी है चाट-पकोड़े की। साथ मे एक भविस्य बताने वाले पाड़ित जी की भी दुकान चल पड़ी है। लखन ने मन ही मन सोचा, बिटिया को पढ़ा के क्या मुसीबत पाल ली, ना तो कोई पढ़ा लिखा लड़का खरीदने की औकात है और बिना पढ़े को लाली नही मनती। उमर भी निकले ही जा रही है। क्या किताबों से ही व्याह करेगी। पेडल का खर्च बड़ा है, चलो पंडित जी ही पूँछते है, कब का व्याह लिखा है लाली के जीवन में। शायद तब तक पेडल का इंतेजाम भी भोलेनाथ करवा दे।
सौदा बुरा नहीं था।
"जय भोले की पाड़ित जी" लखन ने पुकारा।
"आओ जजमान" पंडित जी ने भी स्वागत किया।
"अरे पंडित जी, इतनी खातिर मत करो इस ग़रीब की, लक्ष्मी तो हमसे पीढ़ियों से नाराज़ है"
"अरे लखन, हम सब जानते है, हमारा वश होता तो तुमसे एक फूटी कौड़ी भी ना लेते, मगर शास्त्रों मे लिखा है कि बिना दक्षिणा के कोई पूजा संपन्न ही नहीं होती"
"शस्त्रों में अगर ये न भी लिखा हो, फिर भी मैं अपनी जेब खाली कर दूं, मगर लक्ष्मी से कहो जेब मे आए तो सही। अभी के लिए ये पांच रुपये ही पड़े हैं, इतने मे बस एक ही सवाल का जवाब देदो पंडित जी"
"अरे लखन, पाँच रुपये मे तो पितर आँख भी नही खोलते, और थोड़ा बड़ी राशि रखोगे तो कम से कम लक्ष्मी को दिखेगा तो सही कि यहाँ कोई जेब भी है"
"पंडित जी अब हमारी और लक्ष्मी की क्या जिरह है, वो तो बाद मे देखेंगे बस ये बतादो कि बेटी की शादी कब तक हो जाएगी?" लखन ने पांच रुपये जेब से निकलते हुए कहा।
"दान पेटी मे डाल दो जो भी है, हमे पैसों का कोई लालच नही। गणित कह रहा है कि बेटी की शादी अगले छह महीने में हो ही जानी चाहिए वरना फिर इस जनम मे कोई मुहूर्त बन ही नहीं रहा"
लखन के तो मानो पैरो के नीचे से ज़मीन ही खिसक गयी, "छह महीने? कहाँ से आएगा इतना पैसा?"
पंडित बोले, "अगर तीन हज़ार खर्च करने की हिम्मत हो तो मुहूर्त को बदला जा सकता है, तू भला आदमी है, तुम्हारे लिए अट्ठाईस-सौ में करवा देंगे"
लखन ने पहले पांच रुपये के बारे में सोचा, फिर पेडल के बारे मे सोचा, फिर बेटी के बारे मे सोचा और बोला, "अगले छह महीने कोशिश कर ही लेते हैं पंडित जी, रही भोले की करपा तो सब ठीक ही होगा"
"देख लो लखन, उमर भर बेटी को घर बिठा कर खिलाने की कीमत अट्ठाईस-सौ से तो ज्यादा ही पड़ जायेगी"
"चलो पंडित जी, जाई भोले की" और लखन निकल गया अपनी साइकल को लुढ़कते हुए आगे.
"अट्ठाईस-सौ ही तो बेटी ने भी माँगे थे मास्टरी की शिक्षा के लिए, क्या चमत्कार ही भोले का, अगर किस्मत बदलनी है तो वहाँ ना बदलूँ? मास्टर हो जाएगी तो कोई मास्टर ही ढूंढ लेगी, पीढ़ियां सुधर जाएँगी। अट्ठाईस-सौ में अगर भाग्य ही बदलना होता, तो पंडित ही क्यों इस पीपल के नीचे बैठे होता"
और फिर लखन अपनी बेटी को लाल जोड़े में कल्पना करते हुए मुस्कुरा कर आगे निकल गया.
-मोहित सिंह
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