संध्या के समय में जब सूर्य अस्त होकर गृह के दूसरे हिस्से को उज्जलित करने जाता है तब मन की उर्जा भी साथ ही ले जाता है. उस सांध्य काल के कुछ समय तक मानो शरीर शिथिलता पकड़ लेता है और मन मस्तिस्क कुछ समय ले लिए विश्राम लेना चाहता है. शनिवार के दिन अजय भी अपनी अपनी बालकनी से सूरज को नमस्ते कर कुछ सामय के लिए वहां बैठा बैठा तत्कालीन परिस्थिति के बारे में सोचने लगा. उदाहरणों की जड़ों को खोदते खोदते वह चिंतन को बहुत ही आधारभूत स्तर पे ले आया. मानव के समाज में शान्ति पूर्वक रहने का क्या उपाय है? क्या मानव स्वाभाव से ही आक्रामक है या यह उसने सामाजिक व्यवस्था बनायी है जहाँ आक्रमण ही जीवन का तरीका है. मांसाहारी जानवर भोजन के लिए लड़ते और मादा के लिए भी लड़ते हैं. जीवन और प्रजनन जीवन के दो मात्र ध्येय नजर आते हैं. अगर १०० इंसानों के बच्चों को जंगल में जानवर के तौर तरीकों से पाला जाये तो क्या वह भी इस सवाल पे गौर करेंगे कि उनका जीवन क्यों है? क्या उनको भी अपने अस्तित्व पर सवाल होगा? या उसके लिए भाषा का होना जरुरु है? क्या विचार भाषा से बनते हैं? यदि भाषा ना हो तो मनुष्य अपने आप पास की भौतिक वस्तुओं को लेकर सवाल होंगे मगर क्या अपने अस्तित्व को लेकर भी सवाल होंगे? फिर ये हमें पशुओं से कितना अलग बनाता है? इसका तो कोई जवाब नहीं. शायद किसी सामानांतर भ्रह्मांड (parallel universe) में हों. हमारे यूनिवर्स में इतिहास ये कहता है कि भाषा का विकास भी हुआ और उसेक बाद कई दार्शनिक विचारों का भी. इसमें कुछ पूर्णतः काल्पनिक भी और कुछ व्यावहारिक भी.
क्या मानव समाज के शान्ति पूर्वक रहने का समाधान 'नियम' है? समाज के बुद्धिजीवियों द्वारा, जिन्होंने समाज को जिया है और करीब से देखा है, वे कुछ नियम बनायें जिससे सभी बाध्य हों. भारत के सन्दर्भ में इसे संविधान कह सकते हैं. ये कुछ नियमों का जत्था है जिसे हम सबने मिलकर इस बात पे सहमत हुए हैं कि इसके नियमों का पालन सभी लोगों को करना होगा. कोई इससे ऊपर नहीं होगा. यदि हम इन नियमों को तोडना शुरू करें और हर व्यक्ति अपने लाभ से प्रेरित होकर व्यवहार करना शुरू करे तो फिर से हम जंगले के नियमों पर पहुच जायेंगे जहाँ शक्ति ही निर्णायक होगी. ताक़तवर का अस्तित्व रहेगा और बाकी सभी का जीवन उसकी दया पर होगा.
यदि हर व्यक्ति नियमों का पालन करे चाहे वह उसके भले के लिए हो या बुरे के लिए. इसमें एक व्यक्ति जो समाज की एक इकाई है वह समाज के लिए अपने निजी स्वार्थ का बलिदान दे रहा है. लेकिन यदि समाज की इकाई कुछ हट कर नहीं करेगी तो समाज के रूप में उसका विकास कैसे होगा? नए विचारों की उत्पत्ति कैसे होगी?
विषय गंभीर है. आधुनिक समाज में जहाँ लोकतंत्र की सरकारें हैं वहां लोगों द्वारा चुनी हुयी सरकारें हैं. जहाँ सरकारों द्वारा किये गये फैसले यदि जनता को पसंद ना हो तो वह विरोध कर सकती है और सरकार से बातचीत कर समाधान तक पहुच सकती है. लेकिन अगर बात स्वार्थ की हो? जैसे OBC का आरक्षण १९९१ में जिसका सवर्णों ने खुल कर विरोध किया लेकिन क्या फैसला बदला गया? आगजनी भी हुयी दंगे भी हुए. हाल भी गूजरों, जाटों, पटेलों ने भी आरक्षण की मांग की. क्या सरकारें दवाब में आई? और मान लो आज सरकारें इन वोरोध प्रदशनों और दंगो के दवाब में आकर मांगें मानना शुरू कर दें तो भारत में इतने विविध प्रकार के लोग हैं, अलग प्रदेश हैं, अलग जातियां हैं, अलग धर्मं हैं, अलग भाषाएँ हैं यहाँ तक नदियों के पानी को लेकर भी तना तानी है. सबके अपने अपने अलग अलग हित हैं. सड़कें पटरी जाम कर यदि सरकारों को नीतियां तय होने लगी तो भारत में ना कोई बस चल पायेगी और ना ही कोई ट्रेन. वार्तालाप और तथ्यों के आसार पर ही समाधान की खोज निकाल सकते हैं. या रुक कर अगली बार वो सरकार चुनाव सकते हें जो सही काम करे. यदि हम अपने ही बनाये नियमों को अपने हित के लिए अपनी ही मर्ज़ी से तोडना शुरू कर देंगे तो फिर उसे नियम नहीं कह सकते.
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